क्षमा के बारे में दुनिया में जो ज़्यादातर विचार हैं वे क्षमा को
वीरोचित गुण बतलाते हैं। संस्कृत साहित्य से यदि सहनशीलता के अर्थ को लें,
तब भी यह समझ में आता है कि क्षमा के मूल में सहनशीलता ही कहीं है। यह इस
प्रकार कि क्षमादान देने वाले सहन करने की क्षमता रखें एवँ जिसे क्षमा किया
जा रहा है उसके प्रति शत्रुभाव या दंड देने की लालसा न रखे। सहनशीलता यदि
गुण है तो वह वीर का ही गुण हो सकती है। यहाँ वीर से आशय शारीरिक या भौतिक
नहीं बल्कि चारित्रिक स्तर की वीरता है। कायर को यदि पीड़ा सहन करनी पड़े
तो यह उसकी विवशता कही जाएगी। महाभारत में गुरू परशुराम की सेवा के समय
कर्ण जैसे वीर के द्वारा पीड़ा सहन करने की कथा आती है। कर्ण की इस
सहनशीलता से ही गुरू समझ गये थे कि ब्राह्मण वेश में यह युवक एक क्षत्रिय
(योद्धा, अतः वीर) है।
किंतु सहन करने के लिये क्षमा कर देना आवश्यक नहीं। यदि मैं आपको चोट पहुँचाऊं तो अपनी सहनशीलता का परिचय आप पीड़ा को सहनकर भी दे सकते हैं। एक, मुझसे बिना किसी भी संवाद के भी आपका पीड़ा को सहन करना संभव है। दो, मान लीजिये कि मेरे द्वारा शारीरिक चोट पहुँचाने पर आप मुझे शाब्दिक हिंसा (गाली इत्यादि) से दुःख पहुँचाते हैं, तब भी शारीरिक पीड़ा तो आपको सहन करनी ही पड़ेगी, साथ ही लोकाचार के अनुसार यह स्थापित हो जाएगा कि आपने मुझे क्षमा नहीं किया। तीन, यदि आपने मुझे क्षमा कर भी दिया, तब भी पीड़ा तो आपको सहन करनी ही पड़ेगी।
क्या सहनशील व्यक्ति ही क्षमा का अधिकारी है?
सहनशीलता और क्षमा में अंतर है। यह भी आवश्यक नहीं कि जिसे क्षमादान देना हो उसे सहनशील होना ही चाहिये। क्षमा कमजोर का भी अस्त्र हो सकता है।
उदाहरण के लिये किसी बलशाली व्यक्ति ने किसी दुर्बल पर प्रहार किया। बलशाली व्यक्ति का उद्देश्य दुर्बल को बार-बार दुःख पहुँचाना था, अतः वह चाहता था कि दुर्बल उस पर प्रतिप्रहार करे। ऐसे उदाहरण में बलवान को अवश्य ही यह बोध होगा कि उसका दुर्बल पर अत्याचार अनैतिक है। दुर्बलों में सहन करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। किंतु दुर्बल ने कह दिया कि जाओ बलवान मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ। ऐसा करने पर संभव है बलवान को पहले तो लड़ाई के जारी न रहने का खेद हो लेकिन साथ ही इसकी प्रबल संभावना है कि बलवान को अपने किये पर पश्चाताप हो। कम से कम इतना तो अवश्य होगा कि दुर्बल पर प्रहार करने की जो तीव्र भावना बलवान के मन में थी वह क्षीण हो जाएगी। इस प्रकार क्षमा दुर्बलों का अस्त्र प्रमाणित होता है। लेकिन आश्चर्य है कि हम देखते हैं कि अधिकांश उद्धरणों में क्षमा को वीरों का अस्त्र बताया गया है।
किंतु सहन करने के लिये क्षमा कर देना आवश्यक नहीं। यदि मैं आपको चोट पहुँचाऊं तो अपनी सहनशीलता का परिचय आप पीड़ा को सहनकर भी दे सकते हैं। एक, मुझसे बिना किसी भी संवाद के भी आपका पीड़ा को सहन करना संभव है। दो, मान लीजिये कि मेरे द्वारा शारीरिक चोट पहुँचाने पर आप मुझे शाब्दिक हिंसा (गाली इत्यादि) से दुःख पहुँचाते हैं, तब भी शारीरिक पीड़ा तो आपको सहन करनी ही पड़ेगी, साथ ही लोकाचार के अनुसार यह स्थापित हो जाएगा कि आपने मुझे क्षमा नहीं किया। तीन, यदि आपने मुझे क्षमा कर भी दिया, तब भी पीड़ा तो आपको सहन करनी ही पड़ेगी।
क्या सहनशील व्यक्ति ही क्षमा का अधिकारी है?
सहनशीलता और क्षमा में अंतर है। यह भी आवश्यक नहीं कि जिसे क्षमादान देना हो उसे सहनशील होना ही चाहिये। क्षमा कमजोर का भी अस्त्र हो सकता है।
उदाहरण के लिये किसी बलशाली व्यक्ति ने किसी दुर्बल पर प्रहार किया। बलशाली व्यक्ति का उद्देश्य दुर्बल को बार-बार दुःख पहुँचाना था, अतः वह चाहता था कि दुर्बल उस पर प्रतिप्रहार करे। ऐसे उदाहरण में बलवान को अवश्य ही यह बोध होगा कि उसका दुर्बल पर अत्याचार अनैतिक है। दुर्बलों में सहन करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। किंतु दुर्बल ने कह दिया कि जाओ बलवान मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ। ऐसा करने पर संभव है बलवान को पहले तो लड़ाई के जारी न रहने का खेद हो लेकिन साथ ही इसकी प्रबल संभावना है कि बलवान को अपने किये पर पश्चाताप हो। कम से कम इतना तो अवश्य होगा कि दुर्बल पर प्रहार करने की जो तीव्र भावना बलवान के मन में थी वह क्षीण हो जाएगी। इस प्रकार क्षमा दुर्बलों का अस्त्र प्रमाणित होता है। लेकिन आश्चर्य है कि हम देखते हैं कि अधिकांश उद्धरणों में क्षमा को वीरों का अस्त्र बताया गया है।
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