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Friday, December 24, 2010

योग शब्द का अर्थ है 'कनेक्शन'. आत्मा और परमात्मा या आत्मा से परमात्मा का स्मरण के बीच संबंध मानसिक ध्यान या राज योग कहा जाता है

योग शब्द का अर्थ है 'कनेक्शन'. आत्मा और परमात्मा या आत्मा से परमात्मा का स्मरण के बीच संबंध मानसिक ध्यान या राज योग कहा जाता है

Thursday, December 23, 2010

सफलता का अर्थ

सफलता का अर्थ है दृढ़ आत्मविश्वास, ईमानदारी, बाधाओं और अवरोधों से संघर्ष करने की क्षमता, अबाध गति से कार्य करना जैसी अनेक महत्वपूर्ण बातों का संयोजन तथा एकीकरण!

स्मरण रखिये कि सफलता के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक वस्तु है दृढ़ आत्मविश्वास! यदि किसी व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी है तो जीवन में उसके सफल होने के अवसर भी कम हैं। हमारे और हमारी सफलता के बीच अनेक बाधाएँ दीवार के रूप में आकर खड़ी हो जाती हैं।

यह सही है कि बहुत से लोग ईमानदारी के साथ अपना कार्य करने के बाद भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। आखिर क्यों होता है ऐसा? क्योंकि उनके पास आत्मविश्वास की कमी होती है। हार मान लेते हैं वे बाधाओं और अवरोधों से। टूट जाते हैं वे लोग एक दिन।

जो व्यक्ति बाधाओं और अवरोधों से सतत् संघर्ष करते हुये ईमानदारीपूर्वक अपना कार्य आत्मविश्वास बनाये रख कर करते चला जाता है सफलता एक न एक दिन अवश्य ही उसके कदम चूमती है।

सफलता की कुंजी

आत्मविश्वास सफलता की कुंजी है

सफलता एक दुर्घटना नहीं है. यह हमेशा आत्मविश्वास और कड़ी मेहनत के उद्देश्य मनुष्य का एक परिणाम है एक बंदर से अपनी यात्रा वर्ष की homosappiens को निएंडरथल को लाखों लोगों के लिए वह अब है आदमी के लिए इस दुनिया में किया गया है एक प्रक्रिया है विकास के बीच में इन सभी वर्षों आदमी में कभी नहीं रही है. बुलाया स्थिर, वह था और अब भी सभी क्षेत्रों में प्रगति कर जाने के लिए आगे हमेशा किया गया था वहाँ जो कभी उसे स्थिर होने की इच्छा.. कड़ी मेहनत भी वहाँ था, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह वह था जो उसकी प्रगति में एक प्रमुख भूमिका निभाई विश्वास था. हाँ विश्वास है कि वह क्या करना यह जीवन जब भी हम मानव जाति के इतिहास हम पालन करेंगे कि, यह केवल विश्वास के साथ पुरुषों के लिए जो सफल रहा है था पर दिखेगा के लिए महत्वपूर्ण था सक्षम हो जाएगा गैलिलियो प्रसिद्ध वैज्ञानिक एक पागल व्यक्ति के रूप में माना जाता था. जब वह दौर के रूप में पृथ्वी की खोज की, लेकिन यह अपने ही निष्कर्ष है कि अपना रास्ता बनाया के बारे में अपने विश्वास था. इतिहास बताता है कि जो लोग खुद के बारे में आश्वस्त किया गया है जीवन में कभी नहीं हराया है. हम श्री अमिताभ Bacchhan के बारे में कई कहानियाँ सुना है, महान अभिनेता एक रात में एक सितारा नहीं बन था, वह भी अपने कैरियर के प्रारंभिक चरणों में विफलता के अपने हिस्सा था कई निर्देशकों उसे अस्वीकार कर दिया.. लेकिन वह अपनी प्रतिभा में विश्वास जो उसे ऊंचाइयों महामहिम चढ़ गए थे करने के लिए लिया था. मुझे पता है कि कड़ी मेहनत के लिए किसी में वहाँ होना चाहिए जमीनी लेकिन जब हम कुछ भी हम स्वचालित रूप से इसके लिए कड़ी मेहनत करने के बारे में आश्वस्त हैं. करने के लिए काम करने के लिए एक रास्ता खोजने के आगे उत्सुकता किया इच्छा खुद के भीतर आत्मविश्वास से आता है हम कुछ भी हमारे जीवन की लंबाई के बारे में नहीं कर सकते हैं याद रखें. लेकिन हम इसकी चौड़ाई और गहराई के बारे में कुछ कर सकते हैं. हमने कई बार देखा है कि विश्वास के बिना लोगों को अक्सर जीवन में विफलता है तो. कई छात्रों को उनकी परीक्षा में असफल होते हैं, भले ही वे सब ज्ञान है, वे अपनी क्षमताओं के बारे में आश्वस्त नहीं हैं जो उनकी विफलता में परिणाम है. यहां तक कि वयस्कों जब यह काम अगर वे अपने स्वयं के परियोजना यह प्रस्तुति और ज्ञान की कमी की कमी के परिणाम के बारे में आश्वस्त नहीं हैं आता है के रूप में हमारे लोभी शक्ति भी कम अगर हम बातों में विश्वास नहीं है. हम हमेशा जीवन की ओर एक सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए. जो हमारे आत्मविश्वास बढ़ता है याद sunrays जब तक वे ध्यान केंद्रित कर रहे जला नहीं है.. आत्मविश्वास बात है जो हमें में inbuilt है. नहीं है और हम हमारे आत्म में बनाया विश्वास करने के लिए किया है. मुझे पता है कि यह समय लगता है लेकिन यह जब हम बातें कर रही शुरू धीरे - धीरे आता है, अपने स्वयं के काम में स्वतंत्र होना कदम के रूप में अपनी गलतियों की सफलता के लिए और विचार उन्हें सही केवल निष्क्रिय कर जो भी मामला नहीं किया जाएगा कुछ भी नहीं बैठे.. मैं इस के लिए होगा अपने अनुभव के कुछ हिस्से प्यार मैं. पांचवें मानक सेट मैं अंग्रेजी भाषण में भाग लिया था. हालांकि अपने भाषण उस समय अच्छा था, मैं सब विश्वास पर है कि मैं जीत जाएगा बल्कि मुझे यकीन है कि thatI खो देंगे नहीं था. मैं अभ्यास मेरी ठीक से भाषण, लेकिन मैं बहुत अंतिम दिन अपने भाषण पिछले एक था पर डर गया था.. हर एक अपने भाषण दिया था और फिर यह मेरी बारी थी मैं बहुत नर्वस और भी आत्मविश्वास से भरे हुए बाहर है कि मैं सिर्फ एक शब्द कहे बिना पाँच मिनट के लिए मंच पर खड़ा था. जाहिर है मैं खो गया था., लेकिन तब मैं इस तरह से यह समझ में आ जाएगा काम अगले साल नहीं मैं फिर अंग्रेजी सेट भाषण में भाग लिया और इरादा है कि मैं अपने भाषण दिया जीत जाएगा और मैंने सोचा कि मैं जीत के रूप में साथ आत्मविश्वास से भरा के साथ.. विषय था, ''साइकिल चालन के साथ मेरा पहला अनुभव'', अब भी मुझे याद है कि. मैं उन घटनाओं से पता चला है कि मन विश्वास की सही मात्रा में उचित इच्छा रखने और इस तरह हमेशा सफलता का नेतृत्व. के रूप में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने कहा है कि बहादुर अधिनियम, ''लगता है जैसे तुम बहादुर और सफलता तुम्हारा हो जाएगा रहे हैं.

गलतियां ही सफलता की सीढ़

कल मैंने व्यक्तित्व विकास के बारे में कुछ बातों का जिक्र किया था। आज की कड़ी में इस बारे में बाकी बातें आपके सामने हाजिर है। इन नुस्खों का आजमा कर आप अपने व्यक्तित्व में चमत्कारिक परिवर्तन ला सकते हैं।

गलती करने से कभी भी घबराएं नहीं। आप लगातार काम करके सफल हो सकते हैं असफल नहीं। यदि इतिहास को देखें तो कई महत्वपूर्ण विचार गलतियों की वजह से ही समाज को मिल सके। कभी भी असफल होने की भावना से खुद को वो काम करने से मत रोकिए जिसे करना चाहिए।

कभी भी निर्णय को इस वजह से मत टालिए कि वह गलत हो सकता है। कभी भी बैठकर कुछ नहीं पाया जा सकता। ऐसे में जितनी जल्दी आप निर्णय लेंगे चाहे वह गलत ही क्यों न हो, उतनी जल्दी सही निर्णय लेने की क्षमता मिलेगी।

एक ऐसी डायरी बनाए जिसमें आपके विचार, भावनाएं और व्यक्तिगत विकास के बारे में लिखा हो। इसकी सहायता से आप अपनी प्रगति का मूल्यांकन कर सकते हैं। एक बार पीछे मुड़कर अपनी अब तक की यात्रा को परख सकते हैं। यह आपके लिए एक अच्छा स्त्रोत हो सकता है जिसकी मदद से भविष्य के प्लान तैयार किए जा सके। यदि कभी आपकी इच्छा किताब लिखने की हो तो भी इससे मदद मिल सकती है।

यदि कार्य ठीक नहीं हो पा रहे हैं तो खुद को बदलने के लिए हमेशा तैयार रखें। कई बार आप खुद को कुछ करने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लेते हैं मगर उस हिसाब से योजना पूरी नहीं हो पाती। यदि आपको अपना लक्ष्य स्पष्ट है तो उसे पाने का रास्ता बदलने के लिए भी तैयार रहिए। यह रास्ता लंबा हो सकता है मगर आपको मंजिल तक जरुर पहुंचा सकता है।

अपने लक्ष्यों को रोजाना जानने की कोशिश करें। ज्यादा अच्छा होगा कि आप अपने लक्ष्यों से संबंधित चित्र अपने बिस्तर के आसपास लगा लें जिससे जब कभी बिस्तर से उठे या बिस्तर पर जाएं तो उसकी तस्वीर ध्यान रहे। शब्दों से ज्यादा तस्वीर का असर होता है। ऐसे में यह उपाय आपको काफी फायदा दे सकता है।

अपने हाथ में एक इलास्टिक का बैंड बांध लीजिए। जब कभी आपके दिमाग में नकारात्मक विचार आएं तो आप इस बैंड को खींचकर छोड़िए। यह थोड़ा दु:खदायी जरूर है मगर 30 दिन तक ऐसा करके देखिए। परिणाम सकारात्मक होगा।

10) हमेशा अपनी उपलब्धियों पर खुश होइए। खुद को पुरस्कृत करिए क्योंकि इसके लिए आप योग्य हैं। ऐसा करके आप अपने को प्रोत्साहित करते हैं। इससे सफलता पाने की लालसा और बढ़ जाती है।

(सोनिया व्यक्तित्व विकास से जुड़ी कंसलटेंट हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में वह व्यक्तित्व विकास से 20 वर्षो से जुड़ी हुई हैं

विवेक, सहनशीलता, सद्विचार, संवेदनशीलता, अनुशासन, संतोष संयम के आधार स्तंभ हैं।

जब मन इन्द्रियों के वशीभूत होता है, तब संयम की लक्ष्मणलाँघे जाने का खतरा बन जाता है, भावनाएँ बेकाबू हो जाती हैं, असंयम से मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, इंसान असंवेदनशील हो जाता है, मर्यादाएँ भंग हो जाती हैं। इन सबके लिए मनुष्य की भोगी वृत्ति जिम्मेदार है।

भौतिक सुख-सुविधाएँ, जबर महत्वाकांक्षाएँ, तेजी से सब कुछ पाने की चाहत मन को असंयमित कर देती है जिसके कारण मन में तनाव, अवसाद, संवेदनहीनता, दानवी प्रवृत्ति उपजती है फलस्वरूप हिंसा, भ्रष्टाचार, अत्याचार, उत्पीड़न, घूसखोरी, नशे की लत जैसे परिणाम सामने आते हैं। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या असंयम के जनक हैं व संयम के परम शत्रु हैं। इसी तरह नकारात्मक प्रतिस्पर्धा आग में घी का काम करती है।

असल में सारे गुणों की डोर संयम से बँधी होती है। जब यह डोर टूटती है तो सारे गुण पतंग की भाँति हिचकोले खाते हुए व्यक्तित्व से गुम होते प्रतीत होते हैं। चंद लम्हों के लिए असंयमित मन कभी भी ऐसे दुष्कर्म को अंजाम देता है कि पूर्व में किए सारे सद्कर्म उसकी बलि चढ़ जाते हैं। असंयम अनैतिकता का पाठ पढ़ाता है। अपराध की ओर बढ़ते कदम असंयम का नतीजा हैं। इन्द्रियों को वश में रखना, भावनाओं पर काबू पाना संयम को परिभाषित करता है। इंसान को इंसान बनाए रखने में यह मुख्य भूमिका अदा करता है।

विवेक, सहनशीलता, सद्विचार, संवेदनशीलता, अनुशासन, संतोष संयम के आधार स्तंभ हैं। धैर्य और संयम सफलता की पहली सीढ़ी हैं। अच्छे संस्कार, शिक्षा, सत्संग आदि से विवेक को बल मिलता है। मेहनत, सेवाभाव, सादगी से सहनशीलता बढ़ती है। चिंतन, मंथन आदि से विचारों का शुद्धिकरण होता है। प्रभु की प्रार्थना, भक्ति से मनुष्य संवेदनशील हो जाता है। दृढ़ निश्चय से जिंदगी अनुशासित होती है।

अध्यात्म वह यज्ञ है जिसमें सारे दुर्गणों की आहुति दी जा सकती है एवं गुणों को सोने-सा निखारा जा सकता है। आधुनिक दौर में भोग से योग की ओर लौटना मुश्किल है, लेकिन दोनों में संतुलन बनाए रखना नितांत आवश्यक है। आज जीवनशैली व दिनचर्या में बदलाव की दरकार है। मनुष्य में देव और दानव दोनों बसते हैं अतः हम भले ही देव न बन पाएँ, लेकिन दानव बनने से हमें बचना चाहिए।

प्रबल इच्छा

प्रबल इच्छा क्या है ? प्रबल इच्छा का तात्पर्य उस दृढ़ निश्चय से है जो हमें किसी लक्ष्यप्राप्ति के लिए करता होता है। यह लक्ष्य शक्ति, ओहदा, धन या ऐसी ही अन्य कोई वस्तु हो सकती है। कुछ बड़ा पाने या करने के लिये महत्त्वाकांक्षा अनिवार्य है। जीवन में कुछ बड़ा करने का दृढ़ निश्चय। एक स्कूली छात्र ने साॅफ्टवेयर की कम्पनी शुरू की – माइक्रो साॅफ्ट। इसी बीच इस छात्र ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। जब वह अपने स्नातक पाठ्यक्रम के द्वितीय वर्ष में था, कम्पनी ने बहुत बड़ा लाभ कमाना शुरू किया । उसकी प्रबल इच्छा थी कि वह अरबपति बने। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि कम्पनी का काम बढ़ गया था। उसने अपने लक्ष्य को पहचाना और अपने जीवन के महत्त्वाकांक्षी कार्य को बीस वर्ष में पूरा कर लिया। उसकी प्रतिदिन आय वर्ष 1998 में आठ सौ करोड़ थी। आज वह इस धरती का सबसे धनी व्यक्ति है। कौन है वह महान् व्यक्ति ? —- वह बिलगेट्स है।
क्या प्रबल इच्छा, उत्साह एवं साहस के अभाव में तेनसिंह और हिलेरी एवरेस्ट पर्वत की चोटी पर चढ़ने में सफल हो पाते?

"जीओ और जीने दो..."ब्रह्माकुमार भगवान भाई ने मानव अधिकार दिवस निमित्त

"जीओ और जीने दो..."

डूंगरपुर । मानवाधिकार दिवस मनाने के पीछे प्रमुख ध्येय यह है कि हमें किस तरह से जीवन यापन करना चाहिए और कैसा हमारा व्यवहार होना चाहिए। मनुष्य को जीओ और जीने दो की तर्ज पर जीवन व्यतीत करना ही मानवाधिकार दिवस सीखाता है।
ये प्रवचन जिला कारागृह में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय माउंट आबू से आए ब्रह्माकुमार भगवान भाई ने मानव अधिकार दिवस निमित्त आयोजित कार्यक्रम में दिए। उन्होंने कहा कि हमारे लिए स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार के नियम है। जब उनका उल्लंघन करते हैं, तब व्यवस्थाओं में गड़बड़ी हो जाती है। परमात्मा ने सबके लिए कानून एवं नियम बनाए हैं। कुछ वर्षो पूर्व तक मनुष्य अपने अधिकारों और मर्यादाओं को भली-भांति जान उनका पालन करता था।

कलियुग के प्रभाव के चलते वह सब कुछ भूलता जा रहा है। मनुष्य को अपने अधिकार और मर्यादाओं का ज्ञान सत्संग से ही आ सकता है। उन्होंने जीवन में संयम को अपनाने की प्रतिज्ञा भी दिलवाई। इस दौरान अधीक्षक घीसाराम चौधरी, रूपलाल भाई, राजयोग केन्द्र की बी.के. विजय बहन शामिल हुए।

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के ब्रह्माकुमार भगवानभाई

'नैतिक मूल्यों से विकास''नैतिक मूल्यों से विकास'
Saturday, 11 Dec 2010 1:28:11 hrs IST

डूंगरपुर । आदर्श समाज में नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्य प्रचलित हैं। इससे बेहतर जीवन जीने के लिए मार्गदर्शन मिलता है। नैतिक मूल्यों की धारणा से ही मानव मन की आंतरिक शक्तियों का विकास होता है।ये प्रवचन प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के ब्रह्माकुमार भगवानभाई ने शुक्रवार को राजकीय बालिका माध्यमिक विद्यालय टाउन में दिए। उन्होंने कहा कि व्यक्ति अगर चरित्र का उत्थान करना चाहता है, तो उसे आंतरिक शक्तियों द्वारा आत्मबल बढाना होगा। आत्मबल में बढोत्तरी नैतिकता के बिना नहीं आ सकती है। उन्होंने कहा कि सहनशीलता, नम्रता, धैर्यता, शीतलता, शांति, भाईचारा, स्नेह आदि सद्गुणों से व्यक्तित्व का विकास होता है। सद्गुणों से ही चरित्र उत्थान होता है।

उन्होंने अशांति, चोरी करना, लडाई-झगडा, व्यसन, नशा आदि अवगुणों से दूर रहना चाहिए। इस मौके पर बी.के. हेमा बहन, अतिरिक्त जिला शिक्षा अघिकारी योगेशचन्द्र रोत, प्रधानाचार्य गिरिजा वैष्णव ने भी विचार व्यक्त किए

योगीराज बह्माकुमार भगवानभाई ने आध्यात्मिक

ब्रह्माकुमारी संस्थान में सोमवार को माउंट आबू से पधारे योगीराज बह्माकुमार भगवानभाई   ने आध्यात्मिक शिविर को संबोधित करते हुए कहा कि संसार के सभी क्षेत्रों मसलन शिक्षा, व्यापार, राजनीति, धर्म और विज्ञान को अध्यात्म के रंग में रंगना होगा। तभी समाज एक सही दिशा में गतिशील होगा। अध्यात्म समाज में नैतिक उत्तरदायित्व निभाने के लिए प्रेरित ही नहीं करता, सदाचारी जीवन जीने के लिए उकसाता है।
उन्होंने ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय को एक आध्यात्मिक ऊर्जा घर बताते हुए कहा कि ईश्वरीय राजयोग से अष्ट शक्तियों की प्राप्ति होती है। जीवन में निर्विघ्न सफलता के लिए राजयोग को देखने और समझने की जरूरत है। समय की महत्ता बताते हुए कहा, कलयुग का अंत और सतयुग आदि के बीच इस संगम युग में आध्यात्मिक ज्ञान की दिव्य शक्ति से विश्व परिवर्तन का पुनीत कार्य हो रहा है। समय के महत्व को समझें।
माउंट आबू से  ब्रह्माकुमार भगवानभाई ने कहा कि यदि भगवान को पाकर भी छोटी-छोटी, अल्पकालीन कामनाओं का गुलाम रहें तो भला आदमी कैसे आनंदित होगा? इसलिए हमें इच्छाओं की अधीनता छोड़कर अधिकारीपन की स्थिति पैदा करनी चाहिए। इच्छाओं को हमें अपने अधीन होना चाहिए।
संचालिका बहन निर्मला ने कहा कि शरीर निर्वाह में तो मुनष्य पूरा ही दिन-रात लगा देता है, परंतु अपने समय का थोड़ा भी हिस्सा यदि मनुष्य आत्म निर्वाह में लगाए तो उसे मनुष्य जीवन का सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है। मौके पर दर्जनों धर्मप्रेमी उपस्थित थे।

Thursday, November 11, 2010

मीठ्ठे बच्चे : " ईस शरिर रुपी रथ पर विराजमान आत्मा रथी है

मीठ्ठे बच्चे : " ईस शरिर रुपी रथ पर विराजमान आत्मा रथी है, रथी समझकर
कर्म करो तो देह- अभिमान छुट जायेगा ".

प्रश्न : बाप के बात करने का ढंग मनुष्यो के ढंग से बिल्कुल ही निराला है, कैसे ?

उत्तर : बाप ईस रथ पर रथी होकर बात करते है और आत्माओ से ही बात करते है ।
शरिरो को नही देखते । मनुष्य न तो स्वयं को आत्मा समझते और न आत्मा से बात करते
तुम बच्चो को अब यह अभ्यास करना हौ किसी भी आकारी वा साकारी चिञ को
देखते भी नही देखो । आत्मा को देखो और एक विदेही को याद करो ।



गीत : तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो तुम ही...


धारना के लिए मुख्य सार :

१) सतोप्रधान संन्यास करना है , इस पुरानी दुनिया में रहते इससे ममत्व मिटा देना है ।
देह सहित जो भी पुरानी चिजे है उनको भुल जाना है ।

२) अपना बुद्धी योग उपर लटकाना है । किसी भी चिञ वा देहधारी को
याद नही करना है । एक बाप का ही सिमरण करना है ।


वरदान : कल्याणकारी युग में स्वयंम का और सर्व का कल्याण करने वाले प्रक्रृति जित वा
माया जित भव.

स्लोगन : न्यारे , प्यारे होकर कर्म करने वाले ही संकल्पो पर सेकंड मे फ़ुल स्टोप लगा सकते है ।

मीठे बच्चे - तुम सच्चे-सच्चे राजऋषि हो, तुम्हारा कर्तव्य है तपस्या करना, तपस्या से ही पूजन लायक बनेंगे''

मीठे बच्चे - तुम सच्चे-सच्चे राजऋषि हो, तुम्हारा कर्तव्य है तपस्या करना, तपस्या से ही पूजन लायक बनेंगे'' 
प्रश्न: कौन-सा पुरूषार्थ सदाकाल के लिए पूजने लायक बना देता है? 
उत्तरः- आत्मा की ज्योति जगाने वा तमोप्रधान आत्मा को सतोप्रधान बनाने का पुरूषार्थ करो तो सदाकाल के लिए पूजन लायक बन जायेंगे। जो अभी गफ़लत करते हैं वह बहुत रोते हैं। अगर पुरूषार्थ करके पास नहीं हुए, धर्मराज की सज़ायें खाई तो सज़ा खाने वाले पूजे नहीं जायेंगे। सज़ा खाने वाले का मुँह ऊंचा नहीं हो सकता। 
धारणा के लिए मुख्य सारः- 
1)
जैसे बाप सदा बच्चों के प्रति सुखदाई है, ऐसे सुखदाई बनना है। सबको मुक्ति-जीवनमुक्ति का रास्ता बताना है। 
2)
देही-अभिमानी बनने की तपस्या करनी है। इस पुरानी छी-छी दुनिया से बेहद का वैरागी बनना है। 
वरदान: निश्चय की अखण्ड रेखा द्वारा नम्बरवन भाग्य बनाने वाले विजय के तिलकधारी भव 
जो निश्चयबुद्धि बच्चे हैं वह कभी कैसे वा ऐसे के विस्तार में नहीं जाते। उनके निश्चय की अटूट रेखा अन्य आत्माओं को भी स्पष्ट दिखाई देती है। उनके निश्चय की रेखा की लाइन बीच-बीच में खण्डित नहीं होती। ऐसी रेखा वाले के मस्तक में अर्थात् स्मृति में सदा विजय का तिलक नज़र आयेगा। वे जन्मते ही सेवा की जिम्मेवारी के ताजधारी होंगे। सदा ज्ञान रत्नों से खेलने वाले होंगे। सदा याद और खुशी के झूले में झूलते हुए जीवन बिताने वाले होंगे। यही है नम्बरवन भाग्य की रेखा। 
स्लोगन: बुद्धि रूपी कम्प्यूटर में फुलस्टॉप की मात्रा आना माना प्रसन्नचित रहना।

Tuesday, October 26, 2010

BK BHAGWAN BHAI BRAHMAKUMARI

Published on May 1, 2010 by Brahakumaris | 104 Views | General, artical, Education, Lifestyle | 0 Comments




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1. साहसी मनुष्य को अपने पराक्रम का पुरस्कार अवश्य मिलता है। सिंह की गुफा में जाने वाले को संभव है काले रंग का मोती गजमुक्ता मिल जाये परंतु जो मनुष्य गीदड़ की मांद में जायेगा तो उसे गाय की पुँछ और गधे के चमडे के अलावा और क्या मिल सकता है। 2. धन का लोभ करने वाला ज्ञानी असंतुष्ट रहते हुए अपने धर्म का पालन नहीं कर पाता, इसलिए उसका गौरव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। उसी तरह राजा भी सन्तुष्ट होते ही नष्ट हो जाता है क्योंकि वह अपने राज्य के प्रति सन्तुष्ट होने के कारण महत्त्वान्काक्षा से रहित सुस्त हो जाता और शत्रु उसे घेर लेता है।
3. उनका जीवन व्यर्थ है जिन्होंने कभी अपने हाथों से दान नहीं किया, कभी अपने कानों से  नहीं सुना, अपने आँखों से सज्जन पुरुषों के दर्शन नहीं किजिस व्यक्ति पर परमपिता भगवान्  की कृपा दृष्टि हो जाती है उसके लिए तीनों लोक अपने ही घर के समान है। जिस पर प्रभु का स्नेह रहता है उसके सभी कार्य स्वयं सिद्ध हो जाते हैं।ये, जिकिसी भी कार्य को करने से पहले देख लेना चाहिए उसका प्रतिफल क्या मिलेगा? यदि प्राप्त लाभ से बहुत अधिक परिश्रम करना पडे तो ऐसा परिश्रम न करना ही अच्छा है। माला गूंथने से, चंदन घिसने से या ईश्वर की स्तुति का स्वयं गान करने से ही किसी भी मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता है, यह कार्य तो हर कोई कर सकता है। वैसे जिनका यह व्यवसाय है उन्हें ही शोभा देता है। मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए जो उसके लिए उचित व कम परिश्रम से फलदायक हो।न्होंने कभी तीर्थयात्रा नहीं की जो अन्याय से प्राप्त किये धन सेसंत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की ज्ञान रूपी हाथी पर सहज भाव से दुलीचा डालकर उस पर सवारी कीजिए और संसार के दुष्ट पुरुषों को कुत्ते की तरह भोंकने दीजिये, उनकी पवाह मत करिये.
मनुष्य की प्रकृत्ति का निर्माण बचपन काल में ही हो जाता है। मनुष्य के माता पिता, दादा दादी तथा अन्य वरिष्ठ परिवारजन जिस तरह का आचार विचार तथा व्यवहार करते हैं उसी से ही उसमें संस्कार और विचार का निर्माण होता है। इसके अलावा बचपन के दौरान ही जैसा खानपान होता है वैसे ही स्थाई गुणों का भी निर्माण होता है जो जीवन पर्यंत अपना कार्य करते हैं। एक बार जैसी प्रकृत्ति मनुष्य की बन गयी तो फिर उसमें बदलाव बहुत कठिन होता है।
इसलिये जिनमें दुष्टता का भाव आ गया है उनके साथ संपर्क कम ही रखें तो अच्छा है। चाहे जितना प्रयास कर लें दुष्ट अपना रवैया नहीं बदलता और अगर उसने किसी व्यक्ति विशेष को अपने दुव्र्यवहार का शिकार बनने का विचार कर लिया है तो फिर उससे बाज नहीं आता। ऐसे में सज्जन व्यक्ति को चाहिये कि वह खामोशी से दुष्ट के व्यवहार को नजरअंदाज करे क्योंकि उनकी प्रकृत्ति ऐसी होती है कि बिना किसी को तकलीफ दिये उनको चैन जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं।नहीं पड़ता। ऐसे दुष्ट किसी की मजाक उड़ाकर तो किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। सज्जन के लिये दो ही उपाय है कि वह चुपचाप अपने रास्ते चले या अगर उसे नियंत्रण करने के लिये शारीरिक या आर्थिक बल है तो उस पर प्रहार करे पर इसके बावजूद भी यह संभावना कम ही होती है कि वह नालायक आदमी सुधर जाये। ऐसे दुष्ट लोग चाहे जितनी बार तीर्थ स्थान पर जाकर स्नान करें पर उनका उद्धार नहीं होता। तीर्थ पर जाने से शरीर का मल निकल सकता है पर मन का तो कोई योगी ही निकाल पाता है।
वक्त के साथ अपनी सोच में बदलाव लाना भी जरुरी होता है। आज के दौर में हर क़दम पर पहाड़ जैसी मुश्किल हमारा सामना कर रही है। अगर उनसे नई सोच और सूझ बूझ के साथ काम न लिया जाए तो वो हमारे ऊपर हावी हो जाएंगी। इसलिए जरुरी है कि वर्तमान के साथ साथ भविष्य को भी प्रडिक्ट करते रहें। ताकि आने वाली मुश्किलों का आसानी से सामना किया जा सके।
अभिप्राय यह है कि सत्संग और तीर्थस्थानों पर जाकर मन का मैल नहीं निकलता बल्कि उसके लिये अंतमुर्खी होकर आत्म चिंतन करना चाहिये। इतना ही नहीं अपने को ही सुधारने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे से यह अपेक्षा न करें कि वह आपके समझाने से समझ जायेगा। कुछ लोगों में कुसंस्कार ऐसे भरे होते हैं कि उन्हें उपदेश देने से अपना ही अपमान होता है। अतः उससे दूर होकर ही अपना काम करें।जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैस मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
१. यदि आप सफलता हासिल करना चाहते हैं तो गोपनीयता रखना सीख लें. जब किसी कार्य की सिद्धि के लिए कोई योजना बना रहे हैं तो उसके कार्यान्वयन और सफल होने तक उसे गुप्त रखने का मन्त्र आना चाहिए. अन्य लोगों की जानकारी में अगर आपकी योजना आ गयी तो वह उसमें सफलता संदिग्ध हो जायेगी.
२.प्रत्येक व्यक्ति को स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए. उसे प्रतिदिन धर्म शास्त्रों का कम से कम एक श्लोक अवश्य पढ़ना चाहिए. इससे व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है और उसका भला होता है.
३.विवेकवान मनुष्य को जन्मदाता, दीक्षा देकर ज्ञान देने वाले गुरु, रोजगार देने वाले स्वामी एवं विपत्ति में सहायता करने वाले संरक्षक को सदा आदर देना चाहिए.
४.मनुष्य को चाहिए की कोई कार्य छोटा हो या बड़ा उसे मन लगाकर करे. आधे दिल व उत्साह से किये गए कार्य में कभी सफलता नहीं मिलती. पूरी शक्ति लगाकर अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य करने का भाव शेर से सीखना चाहिए.
५.अपनी सारी इन्द्रियों को नियंत्रण में कर स्थान, समय और अपनी शक्ति का अनुमान लगाकर कार्य सिद्धि के लिए जुटना बगुले से सीखना चाहिए
1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं।
3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।
4.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए। धर्म, धन, अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखना चाहिए, जो इनको भलीभांति सहेज कर रखता है वह हेमेशा सुखी रहता है।बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने से समय पर न विद्या काम आती है न धनं.
5.जो बात बीत गयी उसका सोच नहीं करना चाहिए। समझदार लोग भविष्य की भी चिंता नहीं करते और केवल वर्तमान पर ही विचार करते हैं।हृदय में प्रीति रखने वाले लोगों को ही दुःख झेलने पड़ते हैं।
6.प्रीति सुख का कारण है तो भय का भी। अतएव प्रीति में चालाकी रखने वाले लोग ही सुखी होते हैं.
7.जो व्यक्ति आने वाले संकट का सामना करने के लिए पहले से ही तैयारी कर रहे होते हैं वह उसके आने पर तत्काल उसका उपाय खोज लेते हैं। जो यह सोचता है कि भाग्य में लिखा है वही होगा वह जल्द खत्म हो जाता है। मन को विषय में लगाना बंधन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है.

हम परमात्मा को गाली देते हैं!!!

परमात्मा यानी सर्व आत्माओं में परम | जिनको हम कहते है की ये हर जगह और हर जीव में विद्यमान है ! सूअर कुत्ते बिल्ली गाय गधे में सब जगह मौजूद है ! एक दुष्ट आदमी में और एक क्रूर आदमी में भी परमात्मा मौजूद है ! दरअसल ये कहना परमात्मा को सबसे बड़ी गाली देना है ! परमात्मा सर्वव्यापी नहीं है ! अगर एक क्रूर आदमी के अन्दर परमात्मा है तो वो क्यों क्रूर होता है ?क्या परमात्मा के गुणों में क्रूरता का भी एक गुण है? एक व्यक्ति जो किसी को बेवजह मौत के घाट उतारता है या जघन्य अपराध करता है, तो उसके अन्दर विद्यमान परमात्मा कहाँ सोता है ? परमात्मा के गुण कहाँ रहते हैं! जैसे अगर एक इत्र की शीशी खुली छोड़ दी जाए तो उसकी खुशबु से पता चलेगा की इत्र की खुशबु है ! ठीक वैसे ही परमत्मा के गुण हैं शांति, दया, प्रेम, करुना, ज्ञान,अगर क्रूर व्यक्ति में परमात्मा का वास है तो वो गुण क्यों नहीं ! परमात्मा अगर सबमे विद्यमान है तो अवतरित होने की क्या आवश्यकता है जबकि सबमे पहले से मोजूद हैं? अवतार लेना अर्थात दूसरी जगह से आना, दूसरी जगह से आना अर्थात यहाँ ना होना !
हम परमात्मा की संतान हैं उस नाते उनके गुण हमारे अन्दर हो सकते हैं पर परमात्मा नहीं !शाश्त्रों में हैं "आत्मा सो परमात्मा" जिसका हमने गलत अर्थ लगाया की आत्मा ही परमात्मा है| यहाँ पर आत्मा और परमात्मा के रूप की बात कही गयी है "आत्मा सो परमात्मा" का तात्पर्य है जैसा रूप और आकर आत्मा का है वैसा ही रूप और आकार परमात्मा का है ! अत: परमात्मा को सर्व व्यापी कहना अर्थात गाली देना है!
परमात्मा कौन है और कैसा है??
परमात्मा कौन है और कैसा है?? ये सवाल अक्सर हमारे मन में आता है, इसके अलग अलग मान्यताएं है !
पर ब्रह्मा कुमारीज के अनुसार परमात्मा आत्मा की ही तरह है जैसा की आत्मा के बारे में पिछली पोस्ट में
बताया था की आत्मा एक ज्योतिस्वरूप अंडाकार और अति सूक्षम जो स्थूल आँखों से देखि नहीं जा सकती, है|
ठीक परमात्मा का भी वैसा ही आकार वैसा ही रूप और उतने ही सूक्ष्म है|
क्यूंकि परमात्मा हम सभी आत्माओं के पिता है|जैसे लौकिक में आदमी और उसकी संतान आदमी ही होती है,
गाय की बाछी गाय ही ही होती है,ठीक उसी प्रकार आत्मा के पिता परमात्मा भी आत्मा जैसे ही होते हैं|
फर्क है तो ये की उनकी सक्तियाँ असीमित है आत्मा ज्ञान स्वरुप है तो परमात्मा ज्ञान के सागर है,
आत्मा शांति स्वरुप है तो परमात्मा शांति के सागर हैं|
आत्मा प्रेम स्वरुप है तो परमात्मा प्रेम के सागर है |
कहने का तात्पर्य ये की परमात्मा सभी दिव्य गुणों के सागर हैं, और सृष्टि के रचियता है|
मौत के बाद के क्या!!!!
मनुष्य में सोचने जैसी अद्भुत क्षमता है| यही कारण है की आज मनुष्य चराचर जगत में सर्वोच्च है | यदा कदा ये सोच भी आती ही है की मौत के बाद क्या होता है|
अगर हम आत्मा हैं तो शरीर त्याग करने के बाद हम आत्माएं कहा जाती हैं ? भिन्न भिन्न मतमतांतर हैं |कोई कहता है ब्रह्म में लीन हो जाती है | कोई कहता है पशु पक्षी या अपने कर्मो के आधार पर दुसरा शरीर प्राप्त करता है, किसी भी योनी में |

आत्मा की गुह्य गतियों को समझने के लिए पहले आत्मा के शरीर की जानकारी आवश्यक है |
आत्मा के तिन शरीर बताये गए हैं :१) स्थूल शरीर २) कारण शरीर ३) सूक्ष्म शरीर |
१.स्थूल शरीर जिसमे हम जन्म लेते हैं जिसमे हम अच्छे बुरे कार्य करते हैं |
२.कारण शरीर जो स्थूल शरीर के कारण उत्पन होता है ,परछाई के रूप में ( पानी, दर्पण , छाया इत्यादि)
३. सूक्ष्म शरीर जिसमे आत्मा विद्यमान रहती है ! जो अगर स्थूल शरीर से निकल जाये तो इन भोतिक आँखों से देखा नहीं जाता |

अब चर्चा करेंगे मौत के बाद क्या होता है ?

एक आदमी जिसका एक्सीडेंट किसी गाड़ी से हो रहा है .....घबराया हुआ वो आदमी भागने की कोशिश करता है......पर गाड़ी के चक्कों ने उसे कुचल दिया....फिर भी वो भागता है .... और दूर चला जाता है .. उसकी समझ से परे की आखिर वो कैसे बच गया .... दूर जाकर देखता है की किसी का एक्सीडेंट हो गया और भीड़ जमा है.... वो भी देखने के लिए उत्सुकता वश जाता है तो भीड़ के अंदर हवा की तरह घुसता है... उसे अजीब लगता है पर समझ से परे की बात होती है.......घटना स्थल पर अपना ही शरीर देखने पर उसकी हैरत का अंदाजा नहीं रहता ..... वो जोर से चिल्लाता है की मैं यहाँ हूँ ......मैं ज़िंदा हूँ.....पर स्थूल कोई भी अंग नहीं है ...आवाज़ निकले कहाँ से ....सूक्ष्म शरीर में विद्यमान आत्मा ही सूक्ष्म शरीर को देख पाती है | उस वक़्त उस आत्मा को पता चलता है की वो कभी मरती नहीं | मौत के बाद आत्मा सूक्ष्म शरीर में रहती है कुछ भी नहीं बदलता सिर्फ वो गायब रहती है पर ओर्गन्स सूक्ष्म होने की वजह से किसी को भी कुछ भान कराने में असमर्थ होती है | अपने प्रियजनों के आस पास भटकती रहती हैं | तब तक भटकती है जब तक उसका निर्धारित गर्भ में समय नहीं आता |

मरने के बाद आत्मा की कोनसी शांति के लिए प्रार्थना करते हैं!!!

पीछे हमने जाना आत्मा और शरीर में आत्मा का निवास स्थान| आइये अब चर्चा करते है की आत्मा के गुण धर्म और स्वरुप क्या है|
आत्मा शांति स्वरुप है| प्रेम स्वरुप है| ज्ञान स्वरुप है| दया स्वरुप है| जो भी हमें अच्छे गुण लगते हैं वही आत्मा के गुण है, और यही कारण है की वो हमें अच्छे लगते है|
निर्दयी आदमी जो की हमेशां दूसरो कष्ट देने वाला होता है, अगर हम उसे बुरा
कहें तो क्या वो खुश होगा?? नहीं? तो क्यों? क्यूंकि वो भी उन दुर्गुणों
को नहीं चाहता, और वो आत्मा ये कतई सहन नहीं कर सकती की उसको दुसरे के
गुणों से पुकारा जाए|
अगर किसी दुष्ट मनुष्य को आप कहोगे की आप कितने अच्छे आदमी है! कितने शांत हैं ! कितने उदार दिल हैं! तो वो खुश होगा ! क्यों?
क्योंकि ये आत्मा के गुण हैं आत्मा अपने गुण को सुनना चाहती है! जो की लुप्त प्राय: हैं |आत्मा का सबसे बड़ा गुण है शांत स्वरुप| यही कारण है की हम शांति शांति चिल्लाते रहते है |कोनसी शांति चाहिए आखिर एकांत में जाकर बैठने से क्या शांति नहीं होती ? और अगर विश्व व्यापी शांति हो जाये तो आत्मा की शांति होगी ?
नहीं ये वो शांति नहीं जिसकी आत्मा को तलाश है|

आत्माको चाहिए वो शांति जिससे मन में हो रही भयंकर उथल पुथल शांत हो और परमात्मप्यार का संचार हो| अगर विश्व की शांति की बात होती तो मरने के बाद दिवंगतआत्मा की शांति के लिए ३ मिनट का मौन धारण करके प्रार्थना नहीं करते ! यहीवो शांति है जो आत्मा का गुण है|हमकहते हैं "ॐ शांति" अर्थात मैं आत्मा शांत स्वरुप हूँ| पर अब शांति लुप्तप्राय: है | कहाँ से आये शांति कोन दे शांति! सब अशांत हैं
अब आगे > पिछली पोस्ट में आत्मा पर थोडा सा प्रकाश डाला गया अब जरुरत है आत्मा को विस्तार से समझने की| आत्मा के तीन गुण होते हैं मन, बुद्धि, और संस्कार|मन: जो हमेशां चलता रहता है ये कार्य करूँ या न करूँ ?
बुद्धि :जो judgement करती है की इस कार्य को कर लें या न करें, ये स्पष्ट रूप से निर्णय देती है| संस्कार : जो कार्य हमने किया उसका हमें क्या फल मिलेगा, अच्छा या बुरा जो भी मिलना है उसी वक़्त आत्मा में रिकोर्ड हो गया |
इनतीनो गुणों के साथ "मैं आत्मा" इस शरीर के मष्तिष्क में निवास करती हूँ
जैसे एक गाडी चालक ड्राइविंग सीट पर बैठ के पूरी गाडी को कंट्रोल करता है,
न की पूरी गाडी में वो मौजूद होता है ठीक उसी भांति आत्मा मष्तिष्क में
बैठकर पुरे शरीर की क्रिया करती है, जैसे एक घर में रहने वाला व्यक्ति घर
की खिड़की खोलता है दरवाजा खोलता है, साफ़ सफाई का सारा कार्य करता है|
आत्मा भी उसी प्रकार अपनी समस्त इन्द्रियों का संचालन करती है| कुछ पूर्व निशानिया जो इंगित करती हैं की मैं एक आत्मा हूँ!
हम टिका माथे के मध्य भाग में लगाते हैं क्यों ?
स्त्रीअपने सुहाग की टिक्की भी माथे में लगाती है लेकिन सुहाग उजड़ जाने के बाद
टिकी नहीं लगाती है क्यों? उतर: हम टिका माथे के मध्य भाग में लगाते हैं
क्योंकि वो आत्मा का निवास स्थान है, और जिस घर में कोई रहता हो उसे
सुनसान नहीं छोडा जता, कुछ न कुछ डेकोरेशन होना ही चाहिए |
स्त्रीअपने सुहाग की निशानी माथे पे लगाती है क्योंकि वो बताती है ये स्वामी का
स्थान है अर्थात इस शरीर की स्वामी भी आत्मा है, सुहाग उजड़ने के पश्चात
बिंदी हटाती है की मेरा स्वामी चला गया| तो ये स्थान स्वामी के रहने का
होता है|
कईबार देखते हैं कई लोग ऐसे मर जाते है की कुछ पता नहीं चलता की ये क्यूँमरा वो बोलता नहीं, शांस नहीं लेता क्यूँ?? जितने भी अंग थे वहीँ पर हैं
पर वो क्यूँ नहीं बोल रहा ??
 मतलब?? "मर" क्या है जो चला गया? यानी कुछ ऐसी शक्ति
जो चली गई, जो बोलती थी, जो सुनती थी, जो देखती थी, वही आत्मा अथवा "मर"इस
शरीर को छोड़ कर चली गई!!!!!! ॐ शांति!!!! 
हूँ !!

मैंकौन हूँ !! सभी इस विषय पर चर्चा कर चुके हैं | वेद पुराण गीता कुरान
बाइबल सभी में आत्मा की पुष्टि होती है | पर आत्मा क्या है कैसे शरीर में
रहती है ? आदि आदि प्रश्नों का उत्तर ब्रह्माकुमारी में द्बारा जिस विधि
से दिया गया वो बताना चाहता हूँ ! प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय
विश्वविद्यालय का मूल मंत्र है की "मैं एक आत्मा हूँ" | अब ज़रा प्रकाश
डाला जाये | कहने का तात्पर्य है की हम जो आँखों से देखते हैं, मुह से
बोलते हैं, कानो से सुनते है, और समस्त इन्द्रियों द्बारा जो भी भान होता
है, वो आत्मा को होता है | मैं आत्मा मस्तिष्क में वास करती हूँ | और
मस्तिष्क ही एक ऐसी जगह है जहां शरीर के सारे कण्ट्रोल मौजूद हैं | वहीँ
से सञ्चालन करती हूँ अपने शरीर को | अब आत्मा का स्वरुप क्या है ? B.K के
अनुसार आत्मा ज्योति स्वरुप है, जो सुक्ष्माती सूक्ष्म है, एक केश के शिरे
का हजारवा हिस्सा, जो अंडाकार है| आत्मा अजर अमर अविनाशी है | अर्थात हम
आज भी है, कल भी थे और कल भी रहेंगे | अब आप योगाशन कीजिये अपने आपको
आत्मा समझाने का प्रयास कीजिये अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।
संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
 अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।
संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
 अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।
संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।

 

Essence: Sweet children, you have to become praiseworthy by serving at the confluence age. Then

Essence:
you will become the most elevated human beings and worthy of worship in the future.
Sweet children, you have to become praiseworthy by serving at the confluence age. Then
Question:
By finishing which illness at its roots will you be able to climb onto the Father’s heartthrone?
Answer:
1. The illness of body consciousness. Because of this body consciousness all the vices have made
you greatly diseased. Only when this body consciousness finishes can you climb onto the Father’s
heart-throne.
2. In order to climb onto the heart-throne, make your intellect unlimited and sit on the pyre of
knowledge. Engage yourself in spiritual service. Together with speaking knowledge, remember the
Father very well.
Song: Awaken! O brides awaken! Your days of happiness are about to come.
Blessing:
souls.
To serve with a benevolent attitude is the means to receive blessings from all souls. When you have
the aim of being a world benefactor, you cannot carry out any task that is not benevolent. As your
task, so your imbibing. If you remember your task, you will constantly remain merciful and a great
donor. You will then move along at every step with a benevolent attitude, there won’t be the
consciousness of “I” and you will remember that you are an instrument. In return for their service
such serviceable souls claim a right to blessings from all souls.
May you serve with a benevolent attitude and claim a right to receiving blessings from allSlogan: Attraction to facilities breaks your spiritual endeavour.

“मीठे बच्चे- नाज़ुकपना भी देह-अभिमान है, रूसना, रोना यह सब आसुरी संस्कार तुम

“मीठे बच्चे- नाज़ुकपना भी देह-अभिमान है, रूसना, रोना यह सब आसुरी संस्कार तुम
बच्चों में नहीं होने चाहिए, दु:ख-सुख, मान-अपमान सब सहन करना है”

प्रश्न: सर्विस में ढीलापन आने का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर: जब देह-अभिमान के कारण एक दो की खामियाँ देखने लगते हैं तब सर्विस में
ढीलापन आता है। आपस में अनबनी होना भी देह-अभिमान है। मैं फलाने के साथ नहीं चल
सकता, मैं यहाँ नहीं रह सकता.... यह सब नाज़ुकपना है। यह बोल मुख से निकालना
माना कांटे बनना, नाफरमानबरदार बनना। बाबा कहते बच्चे, तुम रूहानी मिलेट्री हो
इसलिए ऑर्डर हुआ तो फौरन हाज़िर होना चाहिए। कोई भी बात में आनाकानी मत करो।

धारणा के लिए मुख्य सार:
1) बहुत मीठे, शान्त, अति मीठे स्वभाव का बनना है। कभी भी क्रोध नहीं करना है।
अपनी आंखों को बहुत-बहुत सिविल बनाना है।
2) बाबा जो हुक्म करे, उसे फौरन मानना है। सारे विश्व को पतित से पावन बनाने की
सेवा करनी है अर्थात् घेराव डालना है।

वरदान: ईश्वरीय नशे द्वारा पुरानी दुनिया को भूलने वाले सर्व प्राप्ति सम्पन्न
भव
जैसे वह नशा सब कुछ भुला देता है, ऐसे यह ईश्वरीय नशा दु:खों की दुनिया को सहज
ही भुला देता है। उस नशे में तो बहुत नुकसान होता है, अधिक पीने से खत्म हो
जाते हैं, लेकिन यह नशा अविनाशी बना देता है। जो सदा ईश्वरीय नशे में मस्त रहते
हैं वह सर्व प्राप्ति सम्पन्न बन जाते हैं। एक बाप दूसरा न कोई - यह स्मृति ही
नशा चढ़ाती है। इसी स्मृति से समर्थी आती है।

स्लोगन: एक दो को कॉपी करने के बजाए बाप को कॉपी करो।

राजयोग आध्यात्मिक अनुशासन है राजयोगी ब्रह्मकुमार भगवान भाई

राजयोग आध्यात्मिक अनुशासन है राजयोगी ब्रह्मकुमार भगवान भाई
 
प्रजापिता ब्रह्मकुमारी इश्वरीय विश्वविद्यालय माउंट आबू से पधारे भगवान भाई ने स्थानीय ब्रह्मकुमारीज सेवाकेंद्र पर आयोजित क्रोधमुक्त जीवन विषय पर  मुख्य वक्ता तौर  बोल रहे थे। प्रजापिता ब्रह्मïकुमारी ईश्वरीय विवि द्वारा 7 दिवसीय योग शिविर जारी है। उन्होंने कहा कि राजयोग शिविर राजयोग स्वयं का परमात्मा से संबंध का नाम है। मन और बुद्धि का आध्यात्मिक अनुशासन राजयोग है। यह विचारों के आवेग व संवेग का मार्गान्तरीकरण कर उनके शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। राजयोग व्यक्ति के संस्कार शुुद्ध बनाने और चरित्रिक उत्थान द्वारा शारीरिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ का नाम है। इसके साथ ही यह जीवन की विपरीत एवं व्यस्त परिस्थितियों में संयम बनाए रखने की कला है। आध्यात्मिकता का अर्थ स्वयं को जानना है। प्र्रेम छोटा सा शब्द है, पर जीवन में इसका बड़ा महत्व है। साधन बढ़ रहे हैं, लेकिन जीवन का मूल्य कम होता जा रहा है। उन्होंंने कहा कि सभी को भगवान से प्रेम है। परमात्मा सूर्य के समान है। उनसे निकलने वाली प्रेम रूपी किरणें सभी पर समान रूप से पड़ती है। उन्होंने कहा कि शांति हमारे अंदर है, इसे जानने के साथ ही महसूस करने की भी जरूरत है। भगवान कभी किसी को दुख नहीं देता बल्कि रास्ता दिखता हैे। काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार के त्याग से ही भगवान के दर्शन होते हैं।  राजयोग के अभ्यास से उनके जीवन में हुए सकारात्मक परिवर्तन को साझा किए।
उन्होंने कहा कि सहज राजयोग ही आत्मा-परमात्मा के मंगल मिलन का एक सरल उपाय है। इसी राजयोग ज्ञान एवं ध्यान के नियमित अभ्यास से मनुष्य अपने आंतरिक ज्ञान, आनंद एवं सुख शांति को उजागर कर सकता है। इससे वह संसारी जीवन में दुख, कष्ट व समस्याओं के समय अपने आत्मबल एवं आत्मविश्वास के आधार पर संतुलन कायम रख सकता है और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है।
उन्होंने कहा कि मानव जीवन की सार्थकता व सफलता के लिए सत्संग आवश्यक है। सत्संग को पाकर जीवन मंगलमय बन जाता है, जबकि कुसंगति से जीवन नरकमय हो जाता है। मनुष्य को सदासत्संग अच्छे संस्कारों से मिलता है। संस्कार भी वही सार्थक होते हैं, जो महापुरुषों के दर्शन कराएं। संतों की संगति से ही जन्म-मरण के कष्टों से मुक्ति मिलती है।  परोपकारी भावना से कार्य करना चाहिए, इसका फल स्वयं भगवान देते हैं। 
 उन्होंने कहा कि क्रोध से तनाव और तनाव से अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। क्रोध के कारण ही मन की एकाग्रता खत्म होती है। इस कारण मन अशांत बन जाता है। उन्होंने क्रोध को अग्नि बताते हुए कहा कि इस अग्नि में स्वयं भी जलते हैं और दूसरों को भी जला क्रोध विवेक को नष्ट करता है। क्रोध का प्रारंभ मूर्खता से आरंभ होकर पश्चाताप में जाकर समाप्त होता है।  क्या हो उपाय
उन्होंने क्रोध पर काबू पाने का उपाय बताते हुए कहा कि राजयोग के अभ्यास से क्रोध पर काबू पाया जा सकता है। इसके लिए निश्चय कर परमपिता परमात्मा को मन बुद्धि के द्वारा याद करना, उनके गुणगान करना ही राजयोग है।
सकारात्मक विचार तनाव मुक्ति के लिए संजीवनी बूटी है। सकारात्मक सोच का स्रोत आध्यात्मिकता है। कमलेश बहन ने कहा कि तनावमुक्त बन कर्म इंद्रियों पर संयम कर सकते हैं।
क्रोध स्वयं में विष और व्याधि है। क्रोध मानव जीवन की सर्वोपरि पराजय है। क्रोध में अंधकार की विडंबना, अग्नि की ज्वाला और मृत्यु की विभीषिका है। विश्व की आधे से अधिक समस्याएं क्रोध के कारण बनती है। क्रोध के अंधकार को हजार दीपक दूर नहीं कर पाते। क्रोध आने पर मनुष्य दस गुनी अधिक शक्ति की अनुभूति करता है। इसके उतर जाने पर दुर्बलता आ जाती है। क्रोध में वृद्धावस्था जैसी निर्बलता रहती है। क्रोध का दाग हृदय और मस्तिष्क की पूरी चमक फीकी कर देता है। पंद्रह मिनट के क्रोध से शरीर की उतनी शक्ति क्षीण होती है जितनी शक्ति नौ घंटे कड़े श्रम के बाद होती है। क्रोध विवेक, ज्ञान, बुद्धि को नष्ट करता है। क्रोध के समय आंखें बंद होने के साथ ही होंठ खुल जाते है। ध्वंसात्मक भावों में क्रोध स्वास्थ्य दृष्टि से सबसे घातक है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं ने गंभीर हृदयाघात के बहत्तर घंटे पूर्व सबसे प्रमुख मनोभाव की खोज में क्रोध को ही पाया।  क्रोध की अनुभूति शारीरिक या मानसिक पीड़ा, असुविधा के कारण होती है। भूख, अभाव और अन्याय, भेदभाव से क्रोध पनपता है। क्रोध में गलत निर्णय से हानि होती है, सामाजिक प्रतिष्ठा घटती है। क्रोध उत्पन्न होने वाले विचारों, परिस्थितियों से बचना श्रेयस्कर रहता है। जिस मानसिक दशा में कोई रहता है उसी तरह के विचार आते है। विपरीत परिस्थितियां क्रोध का कारण बनती है। असफलता से भी क्रोध आता है। निर्दोष पर दोष मढ़ना भी एक कारण रहता है। स्वार्थपरता, महत्वाकांक्षा के अपूर्ण रहने पर क्रोध का परिवेश बनता है। क्रोध आने पर संयमपूर्वक मूल कारण का विचार करने पर आधा क्रोध कम हो जाता है। आत्मविश्लेषण करके कारणों की खोज करके निवारण के प्रयास से क्रोध कम होता है। ध्यान, मौन से मानसिक संतुलन सम्यक रहने पर क्रोध नहीं आता। त्याग करने वालों से स्वार्थी जब कृतघ्नता करते है तो क्रोध आता है। अयोग्यता जब योग्यता का मूल्यांकन करती है, निर्दोष को दोषी बताने पर क्रोध प्रतीक बन जाता है। असत्य भाषण पर क्रोध आता है। आंखें क्रोधाग्नि में जलकर दूसरों को भस्म करने की क्षमता रखती हैं। आंखें क्रोध का प्रभाव बताती है, क्रोध से बचने के लिए मौन से बड़ी दूसरी जिसमें विकार है वह कभी देवता नहीं हो सकता। जिसमें अभिमान है वह मनुष्य नहीं हो सकता। अभिमानी लोगों का कहीं सम्मान नहीं होता।

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