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Thursday, July 19, 2012

निंदा प्राय: तीन तरह की होती है -


निंदा प्राय: तीन तरह की होती है -
कारण वश , ईर्ष्या वश और स्वभाव वश । कारण वश निंदा का आधार किसी किये गये कार्य के नैतिकता या नियम के प्रतिकूल होने या कार्य के अपेक्षानुकूल परिणाम न आने या किसी के द्वारा अनुचित व्यवहार या आचरण करने के विरुद्ध होती है। यह निंदा स्वाभाविक व तथ्यपरक होती है । दूसरी कोटि की निंदा ईर्ष्या वश होती है। यदि हम किसी के प्रति ईर्ष्यालु हैं, किसी के प्रति हमारे मन व हृदय में डाह,जलन या ईर्ष्या है तो हम उस व्यक्ति के कुछ भी अच्छे-बुरे कार्य या व्यवहार की निंदा करते हैं ।यह निँदा कभी कभी तथ्यपरक हो सकती है, पर प्राय: यह विद्वेषपूर्ण व लक्षित व्यक्ति को हानि पहुँचाने की नियति से होती है।तीसरी कोटि की निंदा स्वभाव वश होती है । कुछ व्यक्तियों का स्वभाव ही होता है कि वे किसी भी काम की या व्यक्ति की- चाहे अच्छा हो या बुरा निंदा ही करते है। ऐसे लोग सिवाय अपने किसी दूसरे के काम या व्यवहार की निंदा किये बिना रह ही नहीं सकते।उन्हे यह रंचमात्र अहसास भी नहीं होता कि उनके इस क्षणिक निंदारस का आनंद किसी को कितनी हानि,आघात या दु:ख पहुँचा सकता है ।अब प्रश्न यह उठता है कि निंदा का कोई भी कारण हो, क्या हम नैतिक आधार पर किसी भी दूसरे की निंदा करने के अधिकारी हैं। मैने इस प्रश्न पर बहुत मंथन किया पर अपने अंत:करण से यही उत्तर मिलता है कि नहीं, हमें किसी दूसरे की निंदा करने का कोई अधिकार नहीं।हम प्रत्येक से गाहे-बगाहे, जाने-अनजाने कोई न कोई गलती होती ही रहती है, किंतु हम स्वयं की तो कोई निंदा नहीं करते, बजाय हम अपने गलत से गलत, बुरे से बुरे , अनुचित से अनुचित कार्य ,कार्य के परिणाम,आचरण या व्यवहार को उचित,तर्कसंगत व न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं।हम अपने द्वारा किये गये किसी गलती या गलत कार्य अथवा कार्य के खराब या असफल होने का कोई न कोई तथ्यपूर्ण कारण, परिस्थिति, मजबूरी या विवशता या रिहार्यता बताकर उसे उचित ठहराने की कोशिश करते हैं।
इस तरह जब हम सबसे कोई न कोई गलती होती है, और हम अपनी खुद की गलतियों के लिये स्वयं को माफ कर लेते हैं और स्वयं के कृत्य की निंदा कदापि नहीं करते तो हमें किसी दूसरे की निंदा करने का भला क्या नैतिक आधार बनता है।तो अगर हम अपने अंतरात्मा की आवाज सुनें तो हमें परनिंदा का कोई नैतिक अधिकार नहीं।पर असली मसला तो यह है कि हम अपने अंतरात्मा की आवाज कितनी सुनते हैं और उसपर कितनी गंभीरता से अमल करते हैं निंदा रस से बच कर रहें
हमारा प्रिय शगल है दूसरों की निंदा करना। सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। दूसरों में दोष निकालना और खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। इस तरह के लोग हमें कहीं भी आसानी से मिल जाएंगे।
परनिंदा में प्रारंभ में काफी आनंद मिलता है लेकिन बाद में निंदा करने से मन में अशांति व्याप्त होती है और हम हमारा जीवन दुःखों से भर लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है। दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है। हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है।
लोग अलग-अलग कारणों से निंदा रस का पान करते हैं। कुछ सिर्फ अपना समय काटने के लिए किसी की निंदा में लगे रहते हैं तो कुछ खुद को किसी से बेहतर साबित करने के लिए निंदा को अपना नित्य का नियम बना लेते हैं। निंदकों को संतुष्ट करना संभव नहीं है।
जिनका स्वभाव है निंदा करना, वे किसी भी परिस्थिति में निंदा प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर सकते हैं। इसलिए समझदार इंसान वही है जो उथले लोगों द्वारा की गई विपरीत टिप्पणियों की उपेक्षा कर अपने काम में तल्लीन रहता है। किस-किस के मुंह पर अंकुश लगाया जाए, कितनों का समाधान किया जाए!
प्रतिवाद में व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है अपने मनोबल को और भी अधिक बढ़ाकर जीवन में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहें। ऐसा करने से एक दिन आपकी स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी और आपके निंदकों को सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
संसार में प्रत्येक जीव की रचना ईश्वर ने किसी उद्देश्य से की है। हमें ईश्वर की किसी भी रचना का मखौल उड़ाने का अधिकार नहीं है। इसलिए किसी की निंदा करना साक्षात परमात्मा की निंदा करने के समान है। किसी की आलोचना से आप खुद के अहंकार को कुछ समय के लिए तो संतुष्ट कर सकते हैं किन्तु किसी की काबिलियत, नेकी, अच्छाई और सच्चाई की संपदा को नष्ट नहीं कर सकते। जो सूर्य की तरह प्रखर है, उस पर निंदा के कितने ही काले बादल छा जाएं किन्तु उसकी प्रखरता, तेजस्विता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती।
एक राजा ने दो विद्वानों की खूब तारीफ़ सुनी। उसने दोनौं को अपने महल में बुलाया ।एक विद्वान जब नहाने गया तो राजा ने दूसरे के बारे में पहले से उसकी राय पूंछी ।पहला विद्वान – अरे ! ये विद्वान नहीं, बैल है ।ऐसे ही राजा ने दूसरे से पहले के बारे में राय जानी ।दूसरा विद्वान – ये तो भैंस है ।जब दौनों विद्वान खाना खाने बैठे तो थालियों में घास तथा भूसा देखकर चौंक पड़े ।राजा ने कहा – आप दोनौं ने ही एक दूसरे की पहचान बतायी थी, उसी के अनुसार दोनौं को भोजन परोसा गया है ।दौनों की गर्दन शर्म से झुक गयी ।
ईष्र्या की आग
जीवन में वैर करना आसान है और वैर न करना बहुत मुश्किल है। हम वैर-भाव कब रखते हैं? जब हमारा कोई नुकसान हो जाए या फिर हमारा कोई स्वार्थ पूरा न हो। ईष्र्या तो यहीं से पैदा होती है। कम अधिक सभी किसी न किसी से वैर-भाव रखते ही हैं। ईष्र्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है। जो भी ईष्र्या करता है, वह अपना ही विकास रोक देता है।
आप जिससे वैर-भाव रखते हैं, वह तो केवल माध्यम है। असल में तो आप अपने से ही वैर-भाव रख रहे हैं। ईष्र्या की आग में वह नहीं आप खुद जलते हैं, तो नुकसान उसका ज्यादा हुआ या आपका? आपको यह समझना होगा कि वहां दूसरा कोई नहीं है, जिससे आप वैर-भाव रखते हैं। वह भी आप ही हैं और जिससे आप वैर भाव रखते हैं, वह मजे में है आप परेशान हैं। बेशक आप दुनिया को प्रेम मत करिए. बेशक आप प्रतियोगिता रखिए, लेकिन वैर किसी से मत करिए। जिसे आप गलत समझ रहे हैं, वह अपने कर्मो की सजा भुगत रहा है। उससे वैर करने की नहीं प्रेम करने की जरूरत है।
कोई गुस्सा हो रहा है तो आप गुस्सा होकर उसकी बराबरी क्यों करते हैं? आग को आग से क्यों बुझाते हैं? गलत को गलत से क्यों सही करते हैं? नमक से नमक नहीं खाया जाता। सुखी जीवन जीना है तो इस रहस्य को समझना होगा। नहीं तो जीवन आपका आप उसके मालिक। आपकी समझ और आपका सुख-दुख। कोई क्या कर सकता है?

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रझाली असूनह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रझाली असूनह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद  दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले.
भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली.
सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले,  समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे. 
सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा  मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील  वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले.
वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.    

ईष्र्या की आग


ईष्र्या की आग
जीवन में वैर करना आसान है और वैर न करना बहुत मुश्किल है। हम वैर-भाव कब रखते हैं? जब हमारा कोई नुकसान हो जाए या फिर हमारा कोई स्वार्थ पूरा न हो। ईष्र्या तो यहीं से पैदा होती है। कम अधिक सभी किसी न किसी से वैर-भाव रखते ही हैं। ईष्र्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है। जो भी ईष्र्या करता है, वह अपना ही विकास रोक देता है।
आप जिससे वैर-भाव रखते हैं, वह तो केवल माध्यम है। असल में तो आप अपने से ही वैर-भाव रख रहे हैं। ईष्र्या की आग में वह नहीं आप खुद जलते हैं, तो नुकसान उसका ज्यादा हुआ या आपका? आपको यह समझना होगा कि वहां दूसरा कोई नहीं है, जिससे आप वैर-भाव रखते हैं। वह भी आप ही हैं और जिससे आप वैर भाव रखते हैं, वह मजे में है आप परेशान हैं। बेशक आप दुनिया को प्रेम मत करिए. बेशक आप प्रतियोगिता रखिए, लेकिन वैर किसी से मत करिए। जिसे आप गलत समझ रहे हैं, वह अपने कर्मो की सजा भुगत रहा है। उससे वैर करने की नहीं प्रेम करने की जरूरत है।
कोई गुस्सा हो रहा है तो आप गुस्सा होकर उसकी बराबरी क्यों करते हैं? आग को आग से क्यों बुझाते हैं? गलत को गलत से क्यों सही करते हैं? नमक से नमक नहीं खाया जाता। सुखी जीवन जीना है तो इस रहस्य को समझना होगा। नहीं तो जीवन आपका आप उसके मालिक। आपकी समझ और आपका सुख-दुख। कोई क्या कर सकता है?
परनिंदा से बचें
मन एक अणु स्वरूप है। मन का निवास स्थान ह्वदय व कार्य स्थान मस्तिष्क है। इंद्रियों व स्वयं को नियंत्रित करना व विचार करना ये मन के कार्य हैं। आज का मानव प्रतिकूल खानपान के चलते अस्वस्थ है। संयम, ध्यान, आसन प्राणायाम, भगवान नमन व जप शास्त्र से वह स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम से मन का मैल नष्ट होता है। मन को शुभ कामों में लीन रखने से, उसकी विषय विकारों की ओर होने वाली भागदौड़ भी रूक जाती है। उपवास से मन विषय-वासना से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है, तो भगवान के नाम का जप सभी विकारों को मिटा देता है। मन ही बंधन व मोक्ष का कारण है।
भगवान हमारे परम हितैषी हैं। दुख व कष्ट आने पर हमें भगवान की शरण में जाना चाहिए, क्योंकि भगवान हमारा जितना भला कर सकते हैं...उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता है। भगवान का आश्रय लेने वाले भक्त का ख्याल भगवान स्वयं रखते हैं। मन, बुद्धि व चित्त अलग-अलग हैं। शरीरों की आकृतियां भी भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी उनमें आत्मा एक है। परनिंदा से सदैव बचें। जब कोई किसी की निंदा करता है, तो उसे नुकसान हो या न हो, लेकिन निंदा करने वाले की हानि होती है। निंदा करने से शरीर में हानिकारक द्रव्य बनते हैं, जिससे विभिन्न बीमारियों के बढ़ने का खतरा भी बढ़ता है। घर व बाहर झगडे आदि शांत हो...इसके लिए सब को मिलकर...हे प्रभु आनंद दाता...प्रार्थना करनी चाहिए।
क्या हमें परनिंदा का नैतिक अधिकार है ?
परनिंदा मनुष्य के मूल विकारों में से एक है ।इसकी मौलिकता को ही महत्व देते हुये साहित्यकारों ने नवरसों के साथ साथ निंदारस को भी स्थान दिया है । किसी से कुछ त्रुटि हो जाये, प्राय: हम उसकी निंदा करने से चूकते नहीं हैं। किसी के अच्छे कार्य की सराहना करने से हम भले ही प्राय: चूक जाते हैं, किन्तु निंदा का अवसर लाभ उठाने से भला क्या मजाल कि हम चूक जायें ।वैसे कबीर दास जी की मानें तो हमें खुद की निंदा का स्वागत करना चाहिये। उन्होने कहा है - निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । शायद उनके इतने साहस व उदारतापूर्ण कथन का कारण यह हो सकता है कि हमारी निंदा करने वाला हमारी उन कमियों व कमजोरियों को इतने सीधे-सीधे व स्पष्ट तरीके से बता देता है जो कि हमारे मित्र व प्रियजन प्राय: छुपा देते हैं या सीधे तौर से कभी नहीं कह पाते या कहने में संकोच करते हैं ।

परनिंदा मनुष्य के मूल विकारों में से एक है


परनिंदा मनुष्य के मूल विकारों में से एक है ।इसकी मौलिकता को ही महत्व देते हुये साहित्यकारों ने नवरसों के साथ साथ निंदारस को भी स्थान दिया है । किसी से कुछ त्रुटि हो जाये, प्राय: हम उसकी निंदा करने से चूकते नहीं हैं। किसी के अच्छे कार्य की सराहना करने से हम भले ही प्राय: चूक जाते हैं, किन्तु निंदा का अवसर लाभ उठाने से भला क्या मजाल कि हम चूक जायें ।वैसे कबीर दास जी की मानें तो हमें खुद की निंदा का स्वागत करना चाहिये। उन्होने कहा है - निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । शायद उनके इतने साहस व उदारतापूर्ण कथन का कारण यह हो सकता है कि हमारी निंदा करने वाला हमारी उन कमियों व कमजोरियों को इतने सीधे-सीधे व स्पष्ट तरीके से बता देता है जो कि हमारे मित्र व प्रियजन प्राय: छुपा देते हैं या सीधे तौर से कभी नहीं कह पाते या कहने में संकोच करते हैं ।

पाप में पडना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन पाप हो जाने पर अनुताप और दु:ख होना संत-स्वभाव है । कृत पाप को स्वीकृत करना सहज नहीं है ।


आत्म निंदा (सेल्फ रिपोर्च) स्वयं की निंदा करना । स्वयं की निंदा स्वयं करना बडा कठिन काम है । निंदा करना सरल है, लेकिन दूसरों की, दुश्मनों की । स्वयं की निंदा, आत्म-निंदा कठिन है । मुश्किल काम है, हर एक के वश की बात नहीं है । बिरले ही मिलेंगे जो आत्मनिन्दा-आत्म आलोचना करते हैं । हम तो परनिंदा के आदी हैं, उसके बिना तो नींद ही नहीं आती, भोजन नहीं पचता । बडा रस आता है दूसरों की निंदा में । लेकिन महावीर कहते हैं - परनिंदा आक्रमण है और आत्मनिंदा प्रतिक्रमण है ।प्रतिक्रमण का अर्थ है - पाप की स्वीकृति और पाप की स्वीकृति ही मुक्ति का श्रीगणेश है । जैसा कि डॉ. लूथर ने कहा है - ढहश ीशलेसपळींळेप ींे ीळप ळी ींहश लशसळपपळपस ींे ींहश ीरर्श्रींरींळेप.बडा कठिन काम है, अपने पाप को स्वीकार करना । पाप तो सभी करते हैं, लेकिन पाप को पाप स्वीकारना केवल सज्जन मनुष्यों का स्वभाव है - चरप-श्रळज्ञश ळीं ळी ींे षरश्रश्र ळपींे ीळप-ीरळपीं-श्रळज्ञश ळीं ळी ींे वुशश्रश्र ींहश ीरळप.
पाप में पडना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन पाप हो जाने पर अनुताप और दु:ख होना संत-स्वभाव है । कृत पाप को स्वीकृत करना सहज नहीं है ।
एक शिष्य ने गुरु से कहा - गुरुदेव ! आज आपके पांव तले एक मेढकी दब कर मर गई है, एक जीव की हत्त्या हो गई है, अत: आप प्रतिक्रमण कर लेना, प्रायश्चित ले लेना । गुरु जरा स्वभाव का उग्र था, साथ ही कुछ अकडबाज था । उसने कहा - तेरी ये हिम्मत ? क्या तू भूल गया कि तू मेरा शिष्य है, गुरु नहीं । शिष्य चुप रहा, गुरु बडबडाता रहा ।शाम का समय था, गुरु ध्यान करने बैठ रहे थे । शिष्य ने एक बार फिर सविनय निवेदन किया - गुरुदेव ! आपके पांव तले एक मेढकी मर गई थी, प्रतिक्रमण कर लेना, पाप का प्रक्षालन कर लेना ।गुरु को गुस्सा आ गया, आव देखा न ताव, उठाया एक डंडा और शिष्य को मारने लगे । आगे-आगे शिष्य, पीछे-पीछे गुरु (अभी तक गुरु आगे और शिष्य पीछे रहता था, लेकिन क्रोध के वशीभूत हो जाने के कारण, अब गुरु पीछे है) । अंधकार तो था ही, क्रोध में तो वैसे भी व्यक्ति अंधा हो जाता है । गुरु एक खंभे से टकरा गए, माथे पर चोट आई, कोई नाडी फट गई और गुरु वहीं ढेर हो गया ।मैंने कहा न था बडा मुश्किल है, पाप को स्वीकार करना । हर आदमी के वश की बात नहीं कि वह अपने पाप को सहज स्वीकार कर ले ।
इसीलिए महावीर कहते हैं - पाप की स्वीकृति ही प्रतिक्रमण है ।

बात का घाव एक ब्राहमण जंगल से लकड़ी काटता और उन्हें बाज़ार में बेच कर अपना गुजारा करता. एक दिन उसने लकड़ी काट कर गट्ठर बनाया ही था कि अचानक एक शेर सामने आ गया.


बात का घाव
एक ब्राहमण जंगल से लकड़ी काटता और उन्हें बाज़ार में बेच कर अपना गुजारा करता.
एक दिन उसने लकड़ी काट  कर गट्ठर बनाया ही था कि अचानक एक शेर  सामने आ गया. ब्राहमण की जान पर आ बनी. जान बचाने का कोई उपाय न देख वह एक हाथ ऊपर उठा कर आशीर्वाद देने की मुद्रा में मंत्र बोलने लगा. शेर अब तक सोच रहा था कि अच्छा शिकार मिला, आश्चर्य से पूछने लगा- " इस बात का क्या अर्थ है."
ब्राहमण ने कहा - " तुम्हारे पूर्वज मेरे यजमान थे और मुझे  दक्षिणा देते थे. मैंने तुम्हे आशीर्वाद दिया है, अब  तुम भी  मुझे कुछ दक्षिणा दो."शेर ने कहा- " और कुछ तो मेरे पास है नहीं. हाँ, मैं  तुम्हारा ये लकड़ी का गट्ठर अपनी पीठ पर रख कर, रोज  जंगल के बाहर पहुँचा दिया करूँगा."शेर  नित्य ही ब्राहमण की लकड़ियों का गट्ठर जंगल के बाहर तक पहुंचा दिया करता. ब्राहमण को अब बहुत आराम हो गया था.
एक दिन किसी कारण वश शेर को आने में देर हो गयी.  ब्राहमण ने देर से आने के लिए शेर को खरी-खोटी सुनाई और उसका बहुत अपमान किया शेर चुपचाप सुनता रहा. जंगल की सीमा से बाहर आकर शेर ने ब्राहमण से कहा -
" अपनी कुल्हाड़ी से मेरी गर्दन पर एक घाव कर दो, कल से मैं नहीं आऊँगा. "
शेर की गंभीर आवाज़ सुन कर ब्राहमण ने डरकर  शेर की गर्दन पर कुल्हाड़ी से घाव कर दिया.शेर चला गया. दिन बीतते रहे. कई महीने बाद शेर फिर ब्राहमण के सामने आ गया और अपना घाव ब्राहमण को दिखाते हुए बोला -" ये देखो, शरीर का घाव समय के साथ भर गया है लेकिन तुमने जो कटुवचन बोले थे,उनका घाव अब भी हरा है."
ज़िंदगी की सीख :
               शरीर पर लगा  घाव भर जाता है   लेकिन  कटु वचन हमेशा मन को  पीड़ा देते हैं. संबंधों में  स्थायित्व के लिए वाणी की मधुरता अति  आवश्यक है.

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली
















प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले.
भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली.
सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले,  समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे. 
सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा  मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील  वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले.
वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.    

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली







प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली


 प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले.
भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली.
सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले,  समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे.
सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा  मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील  वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले.
वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.