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Thursday, July 19, 2012

पाप में पडना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन पाप हो जाने पर अनुताप और दु:ख होना संत-स्वभाव है । कृत पाप को स्वीकृत करना सहज नहीं है ।


आत्म निंदा (सेल्फ रिपोर्च) स्वयं की निंदा करना । स्वयं की निंदा स्वयं करना बडा कठिन काम है । निंदा करना सरल है, लेकिन दूसरों की, दुश्मनों की । स्वयं की निंदा, आत्म-निंदा कठिन है । मुश्किल काम है, हर एक के वश की बात नहीं है । बिरले ही मिलेंगे जो आत्मनिन्दा-आत्म आलोचना करते हैं । हम तो परनिंदा के आदी हैं, उसके बिना तो नींद ही नहीं आती, भोजन नहीं पचता । बडा रस आता है दूसरों की निंदा में । लेकिन महावीर कहते हैं - परनिंदा आक्रमण है और आत्मनिंदा प्रतिक्रमण है ।प्रतिक्रमण का अर्थ है - पाप की स्वीकृति और पाप की स्वीकृति ही मुक्ति का श्रीगणेश है । जैसा कि डॉ. लूथर ने कहा है - ढहश ीशलेसपळींळेप ींे ीळप ळी ींहश लशसळपपळपस ींे ींहश ीरर्श्रींरींळेप.बडा कठिन काम है, अपने पाप को स्वीकार करना । पाप तो सभी करते हैं, लेकिन पाप को पाप स्वीकारना केवल सज्जन मनुष्यों का स्वभाव है - चरप-श्रळज्ञश ळीं ळी ींे षरश्रश्र ळपींे ीळप-ीरळपीं-श्रळज्ञश ळीं ळी ींे वुशश्रश्र ींहश ीरळप.
पाप में पडना मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन पाप हो जाने पर अनुताप और दु:ख होना संत-स्वभाव है । कृत पाप को स्वीकृत करना सहज नहीं है ।
एक शिष्य ने गुरु से कहा - गुरुदेव ! आज आपके पांव तले एक मेढकी दब कर मर गई है, एक जीव की हत्त्या हो गई है, अत: आप प्रतिक्रमण कर लेना, प्रायश्चित ले लेना । गुरु जरा स्वभाव का उग्र था, साथ ही कुछ अकडबाज था । उसने कहा - तेरी ये हिम्मत ? क्या तू भूल गया कि तू मेरा शिष्य है, गुरु नहीं । शिष्य चुप रहा, गुरु बडबडाता रहा ।शाम का समय था, गुरु ध्यान करने बैठ रहे थे । शिष्य ने एक बार फिर सविनय निवेदन किया - गुरुदेव ! आपके पांव तले एक मेढकी मर गई थी, प्रतिक्रमण कर लेना, पाप का प्रक्षालन कर लेना ।गुरु को गुस्सा आ गया, आव देखा न ताव, उठाया एक डंडा और शिष्य को मारने लगे । आगे-आगे शिष्य, पीछे-पीछे गुरु (अभी तक गुरु आगे और शिष्य पीछे रहता था, लेकिन क्रोध के वशीभूत हो जाने के कारण, अब गुरु पीछे है) । अंधकार तो था ही, क्रोध में तो वैसे भी व्यक्ति अंधा हो जाता है । गुरु एक खंभे से टकरा गए, माथे पर चोट आई, कोई नाडी फट गई और गुरु वहीं ढेर हो गया ।मैंने कहा न था बडा मुश्किल है, पाप को स्वीकार करना । हर आदमी के वश की बात नहीं कि वह अपने पाप को सहज स्वीकार कर ले ।
इसीलिए महावीर कहते हैं - पाप की स्वीकृति ही प्रतिक्रमण है ।

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