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Thursday, July 19, 2012

ईष्र्या की आग


ईष्र्या की आग
जीवन में वैर करना आसान है और वैर न करना बहुत मुश्किल है। हम वैर-भाव कब रखते हैं? जब हमारा कोई नुकसान हो जाए या फिर हमारा कोई स्वार्थ पूरा न हो। ईष्र्या तो यहीं से पैदा होती है। कम अधिक सभी किसी न किसी से वैर-भाव रखते ही हैं। ईष्र्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है। जो भी ईष्र्या करता है, वह अपना ही विकास रोक देता है।
आप जिससे वैर-भाव रखते हैं, वह तो केवल माध्यम है। असल में तो आप अपने से ही वैर-भाव रख रहे हैं। ईष्र्या की आग में वह नहीं आप खुद जलते हैं, तो नुकसान उसका ज्यादा हुआ या आपका? आपको यह समझना होगा कि वहां दूसरा कोई नहीं है, जिससे आप वैर-भाव रखते हैं। वह भी आप ही हैं और जिससे आप वैर भाव रखते हैं, वह मजे में है आप परेशान हैं। बेशक आप दुनिया को प्रेम मत करिए. बेशक आप प्रतियोगिता रखिए, लेकिन वैर किसी से मत करिए। जिसे आप गलत समझ रहे हैं, वह अपने कर्मो की सजा भुगत रहा है। उससे वैर करने की नहीं प्रेम करने की जरूरत है।
कोई गुस्सा हो रहा है तो आप गुस्सा होकर उसकी बराबरी क्यों करते हैं? आग को आग से क्यों बुझाते हैं? गलत को गलत से क्यों सही करते हैं? नमक से नमक नहीं खाया जाता। सुखी जीवन जीना है तो इस रहस्य को समझना होगा। नहीं तो जीवन आपका आप उसके मालिक। आपकी समझ और आपका सुख-दुख। कोई क्या कर सकता है?
परनिंदा से बचें
मन एक अणु स्वरूप है। मन का निवास स्थान ह्वदय व कार्य स्थान मस्तिष्क है। इंद्रियों व स्वयं को नियंत्रित करना व विचार करना ये मन के कार्य हैं। आज का मानव प्रतिकूल खानपान के चलते अस्वस्थ है। संयम, ध्यान, आसन प्राणायाम, भगवान नमन व जप शास्त्र से वह स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम से मन का मैल नष्ट होता है। मन को शुभ कामों में लीन रखने से, उसकी विषय विकारों की ओर होने वाली भागदौड़ भी रूक जाती है। उपवास से मन विषय-वासना से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है, तो भगवान के नाम का जप सभी विकारों को मिटा देता है। मन ही बंधन व मोक्ष का कारण है।
भगवान हमारे परम हितैषी हैं। दुख व कष्ट आने पर हमें भगवान की शरण में जाना चाहिए, क्योंकि भगवान हमारा जितना भला कर सकते हैं...उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता है। भगवान का आश्रय लेने वाले भक्त का ख्याल भगवान स्वयं रखते हैं। मन, बुद्धि व चित्त अलग-अलग हैं। शरीरों की आकृतियां भी भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी उनमें आत्मा एक है। परनिंदा से सदैव बचें। जब कोई किसी की निंदा करता है, तो उसे नुकसान हो या न हो, लेकिन निंदा करने वाले की हानि होती है। निंदा करने से शरीर में हानिकारक द्रव्य बनते हैं, जिससे विभिन्न बीमारियों के बढ़ने का खतरा भी बढ़ता है। घर व बाहर झगडे आदि शांत हो...इसके लिए सब को मिलकर...हे प्रभु आनंद दाता...प्रार्थना करनी चाहिए।
क्या हमें परनिंदा का नैतिक अधिकार है ?
परनिंदा मनुष्य के मूल विकारों में से एक है ।इसकी मौलिकता को ही महत्व देते हुये साहित्यकारों ने नवरसों के साथ साथ निंदारस को भी स्थान दिया है । किसी से कुछ त्रुटि हो जाये, प्राय: हम उसकी निंदा करने से चूकते नहीं हैं। किसी के अच्छे कार्य की सराहना करने से हम भले ही प्राय: चूक जाते हैं, किन्तु निंदा का अवसर लाभ उठाने से भला क्या मजाल कि हम चूक जायें ।वैसे कबीर दास जी की मानें तो हमें खुद की निंदा का स्वागत करना चाहिये। उन्होने कहा है - निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । शायद उनके इतने साहस व उदारतापूर्ण कथन का कारण यह हो सकता है कि हमारी निंदा करने वाला हमारी उन कमियों व कमजोरियों को इतने सीधे-सीधे व स्पष्ट तरीके से बता देता है जो कि हमारे मित्र व प्रियजन प्राय: छुपा देते हैं या सीधे तौर से कभी नहीं कह पाते या कहने में संकोच करते हैं ।

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