निंदा प्राय: तीन तरह की होती है -
कारण वश , ईर्ष्या वश और स्वभाव वश । कारण वश निंदा का आधार किसी किये गये कार्य के नैतिकता या नियम के प्रतिकूल होने या कार्य के अपेक्षानुकूल परिणाम न आने या किसी के द्वारा अनुचित व्यवहार या आचरण करने के विरुद्ध होती है। यह निंदा स्वाभाविक व तथ्यपरक होती है । दूसरी कोटि की निंदा ईर्ष्या वश होती है। यदि हम किसी के प्रति ईर्ष्यालु हैं, किसी के प्रति हमारे मन व हृदय में डाह,जलन या ईर्ष्या है तो हम उस व्यक्ति के कुछ भी अच्छे-बुरे कार्य या व्यवहार की निंदा करते हैं ।यह निँदा कभी कभी तथ्यपरक हो सकती है, पर प्राय: यह विद्वेषपूर्ण व लक्षित व्यक्ति को हानि पहुँचाने की नियति से होती है।तीसरी कोटि की निंदा स्वभाव वश होती है । कुछ व्यक्तियों का स्वभाव ही होता है कि वे किसी भी काम की या व्यक्ति की- चाहे अच्छा हो या बुरा निंदा ही करते है। ऐसे लोग सिवाय अपने किसी दूसरे के काम या व्यवहार की निंदा किये बिना रह ही नहीं सकते।उन्हे यह रंचमात्र अहसास भी नहीं होता कि उनके इस क्षणिक निंदारस का आनंद किसी को कितनी हानि,आघात या दु:ख पहुँचा सकता है ।अब प्रश्न यह उठता है कि निंदा का कोई भी कारण हो, क्या हम नैतिक आधार पर किसी भी दूसरे की निंदा करने के अधिकारी हैं। मैने इस प्रश्न पर बहुत मंथन किया पर अपने अंत:करण से यही उत्तर मिलता है कि नहीं, हमें किसी दूसरे की निंदा करने का कोई अधिकार नहीं।हम प्रत्येक से गाहे-बगाहे, जाने-अनजाने कोई न कोई गलती होती ही रहती है, किंतु हम स्वयं की तो कोई निंदा नहीं करते, बजाय हम अपने गलत से गलत, बुरे से बुरे , अनुचित से अनुचित कार्य ,कार्य के परिणाम,आचरण या व्यवहार को उचित,तर्कसंगत व न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं।हम अपने द्वारा किये गये किसी गलती या गलत कार्य अथवा कार्य के खराब या असफल होने का कोई न कोई तथ्यपूर्ण कारण, परिस्थिति, मजबूरी या विवशता या रिहार्यता बताकर उसे उचित ठहराने की कोशिश करते हैं।
इस तरह जब हम सबसे कोई न कोई गलती होती है, और हम अपनी खुद की गलतियों के लिये स्वयं को माफ कर लेते हैं और स्वयं के कृत्य की निंदा कदापि नहीं करते तो हमें किसी दूसरे की निंदा करने का भला क्या नैतिक आधार बनता है।तो अगर हम अपने अंतरात्मा की आवाज सुनें तो हमें परनिंदा का कोई नैतिक अधिकार नहीं।पर असली मसला तो यह है कि हम अपने अंतरात्मा की आवाज कितनी सुनते हैं और उसपर कितनी गंभीरता से अमल करते हैं निंदा रस से बच कर रहें
हमारा प्रिय शगल है दूसरों की निंदा करना। सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। दूसरों में दोष निकालना और खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। इस तरह के लोग हमें कहीं भी आसानी से मिल जाएंगे।
परनिंदा में प्रारंभ में काफी आनंद मिलता है लेकिन बाद में निंदा करने से मन में अशांति व्याप्त होती है और हम हमारा जीवन दुःखों से भर लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है। दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है। हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है।
लोग अलग-अलग कारणों से निंदा रस का पान करते हैं। कुछ सिर्फ अपना समय काटने के लिए किसी की निंदा में लगे रहते हैं तो कुछ खुद को किसी से बेहतर साबित करने के लिए निंदा को अपना नित्य का नियम बना लेते हैं। निंदकों को संतुष्ट करना संभव नहीं है।
जिनका स्वभाव है निंदा करना, वे किसी भी परिस्थिति में निंदा प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर सकते हैं। इसलिए समझदार इंसान वही है जो उथले लोगों द्वारा की गई विपरीत टिप्पणियों की उपेक्षा कर अपने काम में तल्लीन रहता है। किस-किस के मुंह पर अंकुश लगाया जाए, कितनों का समाधान किया जाए!
प्रतिवाद में व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है अपने मनोबल को और भी अधिक बढ़ाकर जीवन में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहें। ऐसा करने से एक दिन आपकी स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी और आपके निंदकों को सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
संसार में प्रत्येक जीव की रचना ईश्वर ने किसी उद्देश्य से की है। हमें ईश्वर की किसी भी रचना का मखौल उड़ाने का अधिकार नहीं है। इसलिए किसी की निंदा करना साक्षात परमात्मा की निंदा करने के समान है। किसी की आलोचना से आप खुद के अहंकार को कुछ समय के लिए तो संतुष्ट कर सकते हैं किन्तु किसी की काबिलियत, नेकी, अच्छाई और सच्चाई की संपदा को नष्ट नहीं कर सकते। जो सूर्य की तरह प्रखर है, उस पर निंदा के कितने ही काले बादल छा जाएं किन्तु उसकी प्रखरता, तेजस्विता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती।
एक राजा ने दो विद्वानों की खूब तारीफ़ सुनी। उसने दोनौं को अपने महल में बुलाया ।एक विद्वान जब नहाने गया तो राजा ने दूसरे के बारे में पहले से उसकी राय पूंछी ।पहला विद्वान – अरे ! ये विद्वान नहीं, बैल है ।ऐसे ही राजा ने दूसरे से पहले के बारे में राय जानी ।दूसरा विद्वान – ये तो भैंस है ।जब दौनों विद्वान खाना खाने बैठे तो थालियों में घास तथा भूसा देखकर चौंक पड़े ।राजा ने कहा – आप दोनौं ने ही एक दूसरे की पहचान बतायी थी, उसी के अनुसार दोनौं को भोजन परोसा गया है ।दौनों की गर्दन शर्म से झुक गयी ।
ईष्र्या की आग
जीवन में वैर करना आसान है और वैर न करना बहुत मुश्किल है। हम वैर-भाव कब रखते हैं? जब हमारा कोई नुकसान हो जाए या फिर हमारा कोई स्वार्थ पूरा न हो। ईष्र्या तो यहीं से पैदा होती है। कम अधिक सभी किसी न किसी से वैर-भाव रखते ही हैं। ईष्र्या इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है। जो भी ईष्र्या करता है, वह अपना ही विकास रोक देता है।
आप जिससे वैर-भाव रखते हैं, वह तो केवल माध्यम है। असल में तो आप अपने से ही वैर-भाव रख रहे हैं। ईष्र्या की आग में वह नहीं आप खुद जलते हैं, तो नुकसान उसका ज्यादा हुआ या आपका? आपको यह समझना होगा कि वहां दूसरा कोई नहीं है, जिससे आप वैर-भाव रखते हैं। वह भी आप ही हैं और जिससे आप वैर भाव रखते हैं, वह मजे में है आप परेशान हैं। बेशक आप दुनिया को प्रेम मत करिए. बेशक आप प्रतियोगिता रखिए, लेकिन वैर किसी से मत करिए। जिसे आप गलत समझ रहे हैं, वह अपने कर्मो की सजा भुगत रहा है। उससे वैर करने की नहीं प्रेम करने की जरूरत है।
कोई गुस्सा हो रहा है तो आप गुस्सा होकर उसकी बराबरी क्यों करते हैं? आग को आग से क्यों बुझाते हैं? गलत को गलत से क्यों सही करते हैं? नमक से नमक नहीं खाया जाता। सुखी जीवन जीना है तो इस रहस्य को समझना होगा। नहीं तो जीवन आपका आप उसके मालिक। आपकी समझ और आपका सुख-दुख। कोई क्या कर सकता है?