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Tuesday, October 26, 2010

मानसिक तनाव

-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है
इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी
देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में
आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा
भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है।
इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के
लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य
भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और
क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता
है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के
चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी
हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण
खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक
लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें
मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये
पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती
है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। फिर विषय आदमी के मन
में ऐसे विचरते हैं कि वह पूरा जीवन यह भ्रम पाल लेता है कि यही सत्य है।
वह उससे मुक्ति तो तब पायेगा जब वह अपनी सोच के कुंऐं से मुक्त हो। जब तक
राम का नाम स्मरण न करे तब तक वह इससे मुक्त भी नहीं हो सकता।

 अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान
करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह
परिणाम देने वाला होता हैअक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका
मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म
को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री
प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास
करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि
वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा
धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का
प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों
को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान
भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं
क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के
सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि
कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना
करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको य-वर्तमान
समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह
शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में
विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता
है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी
करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।
आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है।
इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के
लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य
भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और
क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता
है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के
चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी
हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण
खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक
लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें
मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये
पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती
है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। फिर विषय आदमी के मन
में ऐसे विचरते हैं कि वह पूरा जीवन यह भ्रम पाल लेता है कि यही सत्य है।
वह उससे मुक्ति तो तब पायेगा जब वह अपनी सोच के कुंऐं से मुक्त हो। जब तक
राम का नाम स्मरण न करे तब तक वह इससे मुक्त भी नहीं हो सकता।
ह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां
विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म
के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश
नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने
वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के
बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन
युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली
अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता
विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते
हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक
मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ
अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के
बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का
आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ
लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके
वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले
अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे
के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के
लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना
हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर
यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह
तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता
लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना
चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा
करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त
होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए
निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के
चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं
क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की
बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ
है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा
की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी
संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ
विनाश से भी रोकता है।

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